लखनऊ में बड़ा इमामबाड़ा की तर्ज पर ही रूमी दरवाजे का निर्माण भी अकाल राहत प्रोजेक्ट के अन्तर्गत किया गया है। नवाब आसफउद्दौला ने यह दरवाजा 1783 ई. में अकाल के दौरान बनवाया था ताकि लोगों को रोजगार मिल सके। अवध वास्तुकला के प्रतीक इस दरवाजे को तुर्किश गेटवे कहा जाता है। रूमी दरवाजा कांस्टेनटिनोपल के दरवाजों के समान दिखाई देता है। यह इमारत 60 फीट ऊंची है। यह द्वार अवधी शैली का एक नायाब नमूना है और इसे लखनऊ शहर के लिए प्रवेश द्वार के रूप में जाना जाता है।
रूमी दरवाजा लखनऊ का हस्ताक्षर भवन माना जाता है, जो अपनी खूबसूरत बनावट के लिए हिंदुस्तान भर में ही नहीं, सारी दुनिया में मशहूर है।
सन् 1784 में उन्होंने रूमी दरवाजा और इमामबाड़ा बनवाना शुरू कर दिया था। इनका निर्माण कार्य सन् 1786 में पूरा हुआ। कहते हैं इनके निर्माण में उस जमाने में एक करोड़ की लागत आई थी।
मजे की बात यह है कि रूमी दरवाजा जब बन रहा था उस वक्त अवध में अकाल पड़ा हुआ था, इसलिए भूखों को रोटी देने की गरज से आसफुद्दौला ने इन इमारतों की विस्तृत योजना बनाई थी।
आसफुद्दौला के संसार प्रसिद्ध इमामबाड़े और रूमी दरवाजे का वास्तुशिल्प किफायतउल्ला नाम के एक नक्शा नवीस ने बनाया था। यह वही कारीगर था, जिसने रूमी दरवाजे के चंद्राकार अर्धगुंबद का और इमामबाड़े की लदावतार छत की डाट को बखूबी संभाला था।
इन सारी इमारतों में लखौड़ी ईट और बादामी चूने का कमाल है। रूमी दरवाजा कान्सटिनपोल के एक प्राचीन दुर्ग द्वार की नकल पर बनवाया गया था और यही कारण है कि 19वीं सदी में लोग कुस्तुनतुनिया कहकर पुकारा करते थ।
नाइटन अपनी किताब 'प्राइवेट लाइफ ऑफ इन ईस्टर्न किंग' में लिखते हैं कि टर्की के सुल्तान के दरबार का प्रवेश द्वार भी इसी मॉडल का था और इसीलिए आज तक योरोपियन इतिहासकार इसे 'टर्किश गेट' कहते हैं।
वैसे लखनऊ की इमारतें किसी एक शैली से संबद्ध नहीं हैं। नवाब आसफुद्दौला के समय से ही इमारतों में गाथिक कला का असर दिखने लगा था।
जो भी हो, रोम से अनायास जुड़ जाने वाला रूमी दरवाजा रोमन लिपि की तरह भले ही विदेशी वास्तु का प्रतीक मान लिया जाय, इसका मूल प्रभाव भारतीय कला का पोषण करता है।
रूमी दरवाजे की ऊंचाई 60 फीट है। इसके सबसे ऊपरी हिस्से पर एक अठपहलू छतरी बनी हुई है, जहां तक जाने के लिए रास्ता है। पश्चिम की ओर से रूमी दरवाजे की रूपरेखा त्रिपोलिया जैसी है जबकि पूर्व की ओर से यह पंचमहल मालूम होता है।
दरवाजे के दोनों तरफ तीन मंजिला हवादार परकोटा बना हुआ है, जिसके सिरे पर आठ पहलू वाले बुर्ज बने हुए हैं जिन पर गुंबद नहीं है। रूमी दरवाजे की सजावट निराली है जिसमें हिंदू-मुस्लिम कला का सम्मिश्रण देखने को मिलता है।
सच पूछा जाए तो यह द्वार ही शंखाकार है, जिसकी मेहराबें कमान की तरह झुकी हुईं हैं। बाहरी मेहराब को नागफनों से सजाया गया है जिन्हें कमल दल भी समझा जा सकता है। यह दोनों निशान अवध प्रदेश के सांस्कृतिक चिन्ह हैं।
नागफनों के बीच से सनाल कमल फूलों की सजावट कतार में मिलती है। द्वार के दोनों तरफ कमलासन पर छोटी छतरियां बनाई गई हैं। अंदर की मेहराब मुगल परंपरा की शाहजहानी मेहराब है।
जिसकी सजावट में नागर कला के बेलबूटे बने हुए हैं उसके शिखर पर फिर एक फूल हुआ कमल बना है। 18वीं सदी में बनवाया गया ये रूमी दरवाजा बाद में भवन निर्माण कला की एक परंपरा बन गया।
इस दरवाजे के पीछे कभी चहारदीवारी हुआ करती थी जिसमें उन अंग्रेज शहीदों की मजारें थीं, जो सन् 1857 की जंगे आजादी में किला मच्छी भवन के मोर्चे पर मारे गए थे।
इन ब्रिटिश सैनिकों में सार्जेंट लारेंस वर्ग और गर्नर मार्टन की कब्रें प्रमुख हैं, जिनके निशान अब भी बाकी हैं।
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